Tuesday, January 19, 2021

हम औरतें सुपरवुमन के सर्टिफिकेट के लिए परेशान रहती हैं: रेणुका

काजोल, मिथिला पारकर और तनवी आजमी की मुख्य भूमिकाओं वाली फिल्म '' रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म का डायरेक्शन ने किया है। फिल्म की कहानी भी रेणुका ने लिखी है। इसलिए रेणुका आधुनिक दौर में महिलाओं की दिक्कतों पर बात करती हैं। त्रिभंग एक परिवार की तीन अलग-अलग नजरिए वाली सशक्त औरतों की कहानी हैं। इस कहानी और किरदारों की बुनियाद कैसे पड़ी?हम स्क्रीन या टीवी पर जो महिलाएं देखते हैं, उन्हें एक सीमित दायरे के भीतर ही दिखाया जाता है। उनका विविधतापूर्ण प्रतिनिधित्व नहीं होता है। जबकि मेरे घर में ही जो महिलाएं हैं, मेरी मां, नानी या मासी, ये सभी बहुत ही सशक्त महिलाएं हैं। ये सभी अलग-अलग सोच की महिलाएं हैं, तो सोचिए दुनिया में कितनी अलग-अलग तरह की महिलाएं होंगी। हमने उन्हें देखा है, उनके बारे में पढ़ा है। मैं ऐसी दिलचस्प महिलाओं को पेश करना चाहती थी। मुझे वो रिश्ते दिखाने थे जो टेढ़े-मेढ़े हों, सीधे-सपाट नहीं। फिर मुझे लगा कि अगर एक ही परिवार की तीन पीढ़ी की औरतें, जिनका नजरिया अलग-अलग हो, उनके बीच रिश्ता कैसा होगा। इनकी सोच अलग है, पर वे आपस में जुड़ी भी हैं। मनमुटाव है पर कनेक्शन भी है। मैंने सोचा, ऐसी औरतों की कहानी पेश करूं, इसलिए मैंने त्रिभंग लिखी। मां-बेटी की यह कहानी लिखते वक्त आपको अपनी मां के साथ रिश्ता भी याद आया?मेरा अपनी मां के साथ रिश्ता बहुत ही अच्छा है। मुझे लगता है कि मैं जो कुछ भी हूं, वह 75 पर्सेंट मेरी मां की वजह से है। भले ही वह मेरी मां हैं लेकिन हमारा रिश्ता जिगरी बहनों जैसा है। वह मेरी बेस्ट ट्रैवलिंग कंपैनियन हैं। फिल्में मुझे सबसे ज्यादा उनके साथ देखना पसंद है तो हम ऐसी बहुत सी चीजें साथ में करते हैं जो आप मां-बेटी के रिश्ते में अमूमन नहीं देखते हैं। इसलिए हमारे बीच तो छोटी-मोटी अनबन भी बहुत कम हुई है। लेकिन ऐसा नहीं है कि मैंने मां और बच्चों के बीच खटपट देखी नहीं है, सुनी नहीं है या पढ़ी नहीं है। रिश्तों में कॉम्पलिकेशंस होते ही हैं। एक सोचता है कि वह जो फैसला ले रहा है, दूसरे के लिए सही है मगर दूसरे को लगता है कि वो मेरे लिए गलत था। हर रिश्ते में अलग-अलग पहलू होते हैं, परफेक्शन भी होता है, कमियां भी होती हैं, उन सभी को दिखाया जाना चाहिए। लेकिन औरतों के मामले में ये हम कम देखते हैं। इसलिए मैं उसे दिखाना चाहती थी। ऐसा आमतौर पर होता है कि बच्चे मां और उसकी महत्वकांक्षाओं को गंभीरता से नहीं लेते। माएं भी अक्सर या तो अपने सपने भुला देती हैं या एक ग्लानि में जीती हैं। आपके हिसाब से दोनों के बीच कैसे तालमेल बनाना चाहिए?हम औरतें ही खुद अपने ऊपर इतना दवाब डालती हैं क्योंकि कहीं न कहीं सभी को समाज के हिसाब से वो सुपरवुमन मां वाला सर्टिफिकेट चाहिए होता है। हम उसी रेस में पड़ी रहती हैं जबकि उस रेस में आप अकेली ही दौड़ रही हैं, खुद ही हांफ रही हैं, खुद ही परेशान हो रही हैं, कोई दूसरा नहीं है जो फर्स्ट आने वाला है। मुझे लगता है कि कहीं न कहीं हमें अपनी तरफ देखने का नजरिया बदलना चाहिए। अपने बच्चों को बचपन से ही अपने सपनों के प्रॉसेस में शामिल करना चाहिए कि आपकी मां ये सोचती है, ये करना चाहती है। हम बच्चों के साथ ये बातें शेयर नहीं करते कि देखो हम भी कुछ करना चाहते हैं, हमारे भी सपने हैं। बच्चों को शुरू से ही इसमें शामिल करना चाहिए। फिल्म के सेट पर भी आप, , तन्वी आजमी, मिथिला पालकर जैसी सशक्त महिलाएं साथ थीं, ऐसे में क्या माहौल रहता था?मुझे वाकई इतने दमदार ऐक्टर्स मिले कि एक ड्रीम टीम मिल गई। शुरुआत काजोल से हुई, उन्होंने रोल स्वीकार किया, तो अनु के हिसाब से उनकी मां और बेटी को कास्ट किया गया। एक तरफ तन्वी जी जैसी दमदार शख्सियत, दूसरी तरफ मिथिला जैसी स्वीट और समझदार लड़की। बाकी कलाकारों में भी कुणाल राय कपूर, वैभव, कंवलजीत सभी बहुत अच्छे थे। इसलिए सेट पर ये हाल था कि हमें हंसी-मजाक से फुर्सत मिली, तो हमने फिल्म बनाई। ऐसा लगता था कि हमारा मुख्य उद्देश्य एक-दूसरे के साथ मजा करना था। हमने आनंद लेकर काम किया पर जब काम करते थे, तो उतने ही सीरियस थे। मुझे लगता है कि जो मजा हमें बनाने में आया, वही स्क्रीन पर भी दिखता है इसलिए लोगों को भी फिल्म देखने में मजा आ रहा है।


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